भागलपुर, बिहार। दीक्षा एक परम पवित्र संस्कार है। दीक्षा संस्कार का विधान समस्त पापों की शुद्धि करने वाला है। दीक्षा के दौरान जिसके प्रभाव से साधक पूजा आदि में उत्तम अधिकार प्राप्त कर लेता है।

शास्त्रों में बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मशक्ति के रूप में पराशक्ति विद्यमान रहती है जो जन्म-जन्मान्तरों से सांसारिक माया-मोह, आणव, मायिक, कार्मिक मलों तथा पंच-कंचुकों से आवेष्ठित रहने के कारण निष्क्रिय तथा सुषुप्त अवस्था में रहती है। जब सद्गुरू द्वारा दीक्षा संस्कार सम्पन्न किया जाता है तो वह मायावी आवरण टूट जाता है तथा शिष्य को अन्तर्निहित दिव्य-शक्ति का आभास हो जाता है।

इस सम्बन्ध में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त ज्योतिष योग शोध केन्द्र, बिहार के संस्थापक दैवज्ञ पं. आर. के. चौधरी उर्फ बाबा-भागलपुर, भविष्यवेत्ता एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ ने सुगमतापूर्वक बतलाया कि:- दीक्षा का विषय अत्यन्त रहस्यमय, गोपनीय, परमगूढ़ तथा विस्तृत है।

सदगुरू से दीक्षा प्राप्त हो जाने पर शिष्य को दिव्य शक्ति का संचार होना प्रारम्भ हो जाता है। दीक्षा शब्द दो अक्षरों दी तथा क्षा से बना है। दी का तात्पर्य देना तथा क्षा का तात्पर्य क्षरण करना होता है। दीक्षा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है तथा समस्त पापों का क्षय होता है।

दीक्षा के कई प्रकार हैं लेकिन मुख्यतः ये तीन प्रकार के हैं।

  1. ब्रह्म दीक्षा:-  इसमें गुरु साधक को दिशा निर्देश व सहायता कर उसकी कुंडलिनी को प्रेरित कर जाग्रत करता है तथा ब्रह्म नाड़ी के माध्यम से परमशिव में आत्मसात करा देता है।
    इसी दीक्षा को ब्रह्म दीक्षा या ब्राह्मी दीक्षा कहते है।
  2. शक्ति दीक्षा:- सामर्थ्यवान गुरु साधक की भक्ति श्रद्धा व सेवा से प्रसन्न होकर अपनी भावना व संकल्प के द्वारा दृष्टि या स्पर्श से अपने ही समान कर देता है। इसे शक्ति दीक्षा, वर दीक्षा या कृपा दीक्षा भी कहते हैं।
  3. मंत्र दीक्षा:- गुरु के द्वारा जो मंत्र प्राप्त होता है उसे मंत्र दीक्षा कहते हैं।
    गुरु सर्वप्रथम साधक को मंत्र दीक्षा से ही दीक्षित करते हैं। इसके बाद शिष्य की ग्राह्न क्षमता, योग्यता श्रद्धा भक्ति आदि के निर्णय के बाद ही ब्रह्म दीक्षा व शक्ति दीक्षा से दीक्षित करते हैं।  
    दीक्षा संस्कार ग्रहण करने के पश्चात गुरु विधि से आरम्भ की हुई उपासना/साधना विशेष फलदायी होती है।

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